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सुल्तानपुर।रिपोर्ट चंद्रजीत यादव: राणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय सुल्तानपुर के शिक्षाशास्त्र विभाग के अंतर्गत एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का विषय "राष्ट्रीय एकीकरण में शिक्षा की भूमिका " था। कार्यक्रम का प्रारंभ शिक्षाशास्त्र विभागाध्यक्ष शिल्पी सिंह और बीएड के डॉ संतोष अंश द्वारा ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती और पौरुष के प्रतीक राणा प्रताप के चित्रों पर माल्यार्पण और दीप प्रज्वलन से हुआ। संगोष्ठी में विषय रखते हुए बीएड विभाग के डॉ संतोष सिंह अंश ने कहा कि जब किसी समाज में सारे व्यक्ति किसी निर्दिष्ट भौगोलिक सीमा के अन्दर अपने पारस्परिक भेद-भावों को भुलाकर सामूहीकरण की भावना से प्रेरित होते हुए एकता के सूत्र बन्ध जाते हैं तो उसे राष्ट्र के नाम से पुकारा जाता है। राष्ट्रवादीयों का मत है – “ व्यक्ति राष्ट्र के लिए है राष्ट्र व्यक्ति के लिए नहीं “ इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र का अभिन्न अंग होता है। राष्ट्र से अलग होकर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्र की दृढ़ता तथा अखंडता को बनाये रखने में पूर्ण सहयोग प्रदान करे एवं राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए राष्ट्रीयता की भावना परम आवश्यक है। वस्तुस्थिति यह है कि राष्ट्रीयता एक ऐसा भाव अथवा शक्ति है जो व्यक्तियों को अपने व्यक्तिगत हितो को त्याग कर राष्ट्र कल्याण के लिए प्रेरित करती है। इस भावना की विकसित हो जाने से राष्ट्र की सभी छोटी तथा बड़ी सामाजिक इकाइयां अपनी संकुचती सीमा के उपर उठकर अपने आपको समस्त राष्ट्र का अंग समझने लगती है। शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीयता के विकास में मदद मिलती हैं। शैक्षिक उद्देश्य, शैक्षिक पाठ्यक्रम, शैक्षिक कार्यक्रमों से एकता का विकास किया जा सकता है। मैं का त्यागकर हम की भावना से राष्ट्रीय एकता बढ़ती है। अपने स्वार्थ को दरकिनार कर राष्ट्रीय एकीकरण को बड़ाना चाहिये। संगोष्ठी में विषय रखते हुए शिक्षाशास्त्र विभागाध्यक्षा शिल्पी सिंह ने कहा कि शिक्षा एक बौद्धिक उपकरण है जो हमें जीवन और जगत-अपने और पराए के बारे में सजग कर सकती है, हमारा चेतना और विवेक का विकास कर हमें अपने तात्कालिक भ्रामक और वास्तविक लाभ-हानि के बारे में सचेत कर सकती है और हमें ‘तमसो या ज्योतिर्गमय’ के राह पर चलने के लिए उत्प्रेरित कर सकती है। शिक्षा यह कैसे करती है? शिक्षा हमारे अज्ञान और भ्रमों-विभ्रमों से लड़ती है और हमारी चेतना को जागृत करती है। शिक्षा हमें उद्वेलित करती है और हमारे शारीरिक आलस्य और मानसिक निष्क्रियता को नष्ट कर सकती है। यहां हम बस यह याद रखें कि हमारा मतलब पोथी-प्रदत्त शिक्षा से नहीं है। दूसरी बात यह कि शिक्षा चरितार्थ तब ही होती है जब कहीं से ले ली जाय–किताबों से, मीडिया से, शिक्षकों से या कहीं से भी, किसी से भी। तभी उसका कोई मतलब होता है। इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षा हमें बता सकती है कि मनुष्य का लाभ विघटन में नहीं संगठन में है, अनेकता के साथ एकता में ही है। हमारे मनीषियों ने भी प्राचीन काल में ही कह दिया था: यजेदेकम् कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्
ग्रामम् जनपदस्यार्थे आत्मार्थे सर्वम् त्यजेत्। यानी कुल के लिए एक को, ग्राम के लिए कुल को, जनपद के लिए ग्राम को और अपने लिए सबको छोड़ देना चाहिए। यहां बड़ हितों के लिए छोटे हितों के परित्याग की बात की गई है पर अपनी वैयक्तिकता के लिए सबको छोड़ देने की बात भी की गई है। शिक्षा यही कर सकती है कि वह हमें विविध तरीकों से बता सकती है कि हमारा बृहत्तर हित किस बात में है और यह भी कि हम यदि सन्मार्ग पर हों तो रवीन्द्र नाथ टैगोर की तरह ‘एकला चलो रे’ की राह भी अपना सकते हैं। यह काम कानून नहीं कर सकता। सरकार से असहमत लोगों को सजा देकर नहीं यानी केवल राजनीतिक रूप से यह एकता स्थापित नहीं की जा सकती। यह काम केवल सांस्कृतिक चेतना का विस्तार कर के किया जा सकता है कि राष्ट्रहित में ही सबका हित है। संगोष्ठी में बीए. तृतीय वर्ष की सौम्या गुप्ता ,कीर्ति गुप्ता, खुशबू पांडे , बीए फर्स्ट सेमेस्टर की संजना सिंह ,पूजा शर्मा ,कनीज फातमा ,आयुष मिश्रा ,गुड़िया कुमारी ,रोशनी वर्मा, हिना बानो ,आभा शर्मा आदि ने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का संचालन बीए थर्ड सेमेस्टर की मुस्कान सिंह ने किया । इस संगोष्ठी में बीए. तृतीय वर्ष ,बीए प्रथम सेमेस्टर ,बीए तृतीय सेमेस्टर के शिक्षाशास्त्र के सभी विद्यार्थी उपस्थित रहे।
डीआरएस न्यूज़ नेटवर्क
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